Triloknath Temple : गजब रहस्य, दो धर्मों के लोग एक साथ करते हैं पूजा
हिमाचल प्रदेश के संपूर्ण पर्वतीय क्षेत्र में भगवान को समर्पित ऐसे असंख्य मंदिर व धार्मिक स्थल विद्यमान है, जहां शताब्दियों से लोग अपने इष्ट देव की पूजा कर उसका आभार प्रकट करते हैं। प्रदेश के लाहौल-स्पीति (उदयपुर) में भगवान शिव को समर्पित एक ऐसा ही प्राचीन व पवित्र मंदिर है और यह मंदिर त्रिलोकीनाथ मंदिर (Triloknath Mandir) के नाम से विख्यात है। यह मंदिर धार्मिक रूप से भी और सांस्कृतिक रूप से भी बड़ा महत्त्व रखता है। चंद्रभागा नदी के किनारे बसा छोटा सा कस्बा उदयपुर साल में लगभग 6 महीने बर्फ से ढका रहता है, जिसके कारण इस जगह पर तापमान माईन्स 25 डिग्री सेल्सिय्स तक चला जाता है। ऐसे में पर्यटक उदयपुर में सिर्फ गर्मियों के मौसम में वहां जा सकते हैं। आज के लेख में हम आपको त्रिलोकनाथ मंदिर (Triloknath Mandir) से जुड़े रहस्य के बारे में बताएंगे। मुझे आशा है आपको मेरा यह लेख जरूर पसंद आएगा।
दो धर्म के लोग एक साथ करते हैं पूजा
छोटी-सी आबादी वाला यह इलाका त्रिलोकीनाथ मंदिर (Triloknath Mandir) के लिए भी मशहूर है। यह मंदिर बेहद खास है क्योंकि त्रिलोकनाथ मंदिर दो धर्मों – हिंदू और बौद्ध धर्म को एक साथ लाता है। दुनिया में शायद यह इकलौता मंदिर है जहां एक ही मूर्ति की पूजा दोनों धर्मों के लोग एक साथ करते हैं। त्रिलोकीनाथ मंदिर (Triloknath Mandir) दोनों धर्मों के कई भक्तों के लिए आशा की किरण के रूप में खड़ा है। हिंदूओं द्वारा त्रिलोकनाथ देवता को शिव के रूप में माना जाता है, वहीं बौद्ध इसे आर्य अवलोकितेश्वर के रूप में इसकी पूजा करते हैं। तिब्बती भाषा-भाषी इसे ‘गरजा फग्सपा’ कहते हैं। यह मंदिर हिंदू और बौद्ध भक्तों के लिए समान धार्मिक महत्व रखता है। भगवान शिव और भगवान बौद्ध का आशीर्वाद पाने के लिए भारी संख्या में भक्त यहां पहुंचते हैं।
इस मंदिर से जुड़े रहस्य
स्थानीय लोगों के अनुसार, इस मंदिर से जुड़े कई रहस्य बरकरार हैं, जिनसे कभी पर्दा नहीं उठ सका, ऐसा ही एक किस्सा कुल्लू के राजा से जुड़ा हुआ है। कहा जाता है कि वह भगवान की इस मूर्ति को अपने साथ ले जाना चाहता था, लेकिन मूर्ति इतनी भारी हो गई कि राजा इसे उठाने में नाकामियाब रहा। संगमरमर की इस मूर्ति की दाईं टांग पर एक निशान भी है, कहा जाता है कि यह निशान उसी दौरान कुल्लू के एक सैनिक की तलवार से बना था।
कैलाश मानसरोवर के बाद सबसे पवित्र तीर्थ
त्रिलोकनाथ मंदिर (Triloknath Temple) को कैलाश और मानसरोवर के बाद सबसे पवित्र तीर्थ माना जाता है। यह मंदिर चंद्रभागा घाटी में पश्चिमी हिमालय में स्थित है। यह अत्यधिक आध्यात्मिक स्थान माना जाता है, जहां व्यक्ति को तीन लोकों के स्वामी का आशीर्वाद मिलता है यानि हिंदुओं के शैव, लाहौल के बौद्ध स्वरूप एवं तिब्बती बौद्ध मत का प्रभाव एक साथ देखने को मिलता है। रोहतांग टनल के खुल जाने से इस मंदिर तक पहुंचना काफी आसान हो गया है। जिला मुख्यालय केलांग से यह लगभग 45 किलोमीटर और मनाली से लगभग 110 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।
मंदिर का ऐतिहासिक महत्व
मंदिर के ऐतिहासिक महत्व के बारे में निश्चित तौर पर तो कुछ नहीं कहा जा सकता लेकिन ऐसा मत है कि यह मंदिर 10वीं शताब्दी में बनाया गया था। यह बात एक शिलालेख पर लिखे गए संदेश द्वारा साबित हुई है, जो 2002 में मंदिर परिसर में पाया गया था। इस शिलालेख में वर्णन किया गया है कि मंदिर ‘दीवानजरा राणा’ द्वारा बनाया गया था जो वर्तमान में ‘त्रिलोकनाथ गांव के राणा ठाकुर शासकों के पूर्वज माने जाते हैं। त्रिलोकनाथ मंदिर की एक विशेषता यह भी है कि यह शिखर शैली में लाहौल घाटी का एकमात्र मंदिर है। भगवान त्रिलोकनाथ की मूर्ति में ललितासन भगवान बुद्ध त्रिलोकनाथ के सिर पर बैठे हैं। यह मूर्ति संगमरमर से बनी है।
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मंदिर को लेकर अन्य किंवदंतियां व कहानियां
इस मूर्ति से जुडी और भी कई स्थानीय किंवदंतियां प्रचलित हैं। कहा जाता है कि वर्तमान में हिंसा नाला पर एक दुधिया रंग की झील थी, सात लोग इस झील से बाहर आकर पास चरने वाली गायों का दूध पी लेते थे। एक दिन ठुड्डू नामक चरवाहे ने उनमें से एक आदमी को पकड़ लिया और पीठ पर उसे अपने गांव में ले गया। वह पकड़ा हुआ व्यक्ति एक संगमरमर की देव मूर्ति में बदल गया। इस देवमूर्ति को मंदिर में स्थापित किया गया। तिब्बती कहानियों में इस झील को ‘ओमे-छो’ अर्थात ‘दूधिया महासागर’ कहा जाता है। अन्य स्थानीय किंवदंती के अनुसार मंदिर का निर्माण एक ही रात में एक महादानव के द्वारा पूरा किया गया। वर्तमान में भी ‘हिंसा नाला’ अपने आप में अद्वितीय है क्योंकि इसका पानी अभी भी दूधिया सफेद है और भारी बारिश में भी इसका रंग नहीं बदलता है। आज भी बौद्ध परम्पराओं के अनुसार ही इस मंदिर में पूजा की जाती है। यह प्राचीन समय से परम्परा चली आ रही है। हिंदू धर्म के लोगों का मानना है कि इस मंदिर का निर्माण पांडवों द्वारा करवाया गया था। वहीं बौद्धों के विश्वास के अनुसार पद्सम्भव 8वीं शताब्दी में यहां पर आए थे और उन्होंने इसी जगह पर पूजा की थी। स्थानीय लोगों के अनुसार मंदिर से जुड़े कई रहस्य जुड़े हुए हैं जिनके बारे में आज तक कोई नहीं जान पाया।
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